प्रभो! राक्षसकुल-निधि रावण आपसे यह भिक्षा माँगता है कि आप सात दिन तक वैरभाव त्यागकर सैन्य सहित विश्राम करें। राजा अपने पुत्र की यथाविधि क्रिया करना चाहता है। वीर विपक्षी वीर का सदा सत्कार करते हैं। हे, बली। आपके बाहुबल मे वीरयोनि स्वर्णलंका अब वीर शून्य हो गई है। विधाता आपके अनुकूल है और राक्षसकुल विपत्तिग्रस्त है, इसलिए आप रावण का मनोरथ पूर्ण करें।’
• महाबली रावण दीन-हीन सा हो उठा था पुत्र मेघनाद के मरने के बाद। वह राक्षसराज, जिसकी हुंकार से दिशाएँ थर्राती थीं रामभद्र के पास किसी याचक की तरह यह प्रार्थना भिजवाई थी ।
• आचार्य जी का यह प्रसिद्ध उपन्यास राम द्वारा लंका पर चढ़ाई से प्रारंभ होता है और सीता के भू प्रवेश तक चलता है। इसकी एक-एक पंक्ति, एक-एक दृश्य ऐसा जीवंत है कि पाठक को बरबस लगता है कि वह स्वयं उसी युग में जी रहा है।
Imprint: Penguin Swadesh
Published: Apr/2025
ISBN: 9780143474258
Length : 128 Pages
MRP : ₹150.00